GEOGRAPHY IN HINDI CLASS SIX [EDITED FROM TEXT BOOK ]
हमारा सौर मण्डल
आसमान में दिन के समय चमकने वाला सूर्य और रात में चमकने वाली समस्त आकृतियाँ जैसे-चन्द्रमा, तारे, आदि ‘आकाशीय-पिण्ड’ कहलाते हैं।
कुछ आकाशीय-पिण्ड गैसों के बने होते हैं। इनमें अपनी ऊष्मा व प्रकाश होता है, जिससे वह निरंतर चमकते रहते हैं। इन आकाशीय-पिण्डों को ‘तारा’ (stars) कहते हैं।
‘सूर्य’(sun)भी एक तारा है।सूर्य अपने परिवार का मुखिया है और अपने परिवार के सभी सदस्यों को ऊष्मा व प्रकाश देता है। ग्रह, उपग्रह, क्षुद्रग्रह और उल्का पिण्ड इस परिवार के सदस्य हैं। सूर्य के मुखिया होने के कारण इस परिवार को ‘सौर-परिवार’ या ‘सौरमण्डल’ कहते हैं। हमारे सौरमण्डल में आठ ग्रह हैं- बुध (MERCURY), शुक्र (VENUS), पृथ्वी(EARTH), मंगल (MARS), बृहस्पति (JUPITER), शनि(SATURN) अरुण (URANUS) तथा वरुण(NEPTUNE)।
ग्रह (PLANET)
कुछ आकाशीय पिण्डों में स्वयं का प्रकाश व ऊष्मा नहीं होती है। वे अपने तारे के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं। साथ ही वे अपने अक्ष (AXIS) पर घूमते हुए अपने तारे की परिक्रमा करते हैं। इन्हें ग्रह कहते हैं। जैसे- हमारी पृथ्वी में स्वयं का प्रकाश नहीं है। वह सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होती है। पृथ्वी एक ग्रह है जो सूर्य का चक्कर लगाती है।
ग्रह को अंग्रेजी भाषा में (Planet) कहते हैं,
उपग्रह (SATELLITE)
कुछ आकाशीय पिण्ड, अपने ग्रह की परिक्रमा करते हुए सूर्य की परिक्रमा पूरी करते हैं। जैसे चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है। यह अपने ग्रह की परिक्रमा करने के कारण ‘उपग्रह’ कहलाते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक ग्रह का उपग्रह हो। सभी ग्रहों के उपग्रहों की संख्या समान होना भी जरूरी नहीं है।हमारी पृथ्वी का एक अकेला उपग्रह चन्द्रमा है, जो पृथ्वी की परिक्रमा करता है।
क्षुद्र ग्रह (ASTEROIDS)
ग्रहों एवं उपग्रहों के अतिरिक्त अनेक छोटे-छोटे पिण्ड भी सूर्य के चारांे तरफ चक्कर लगाते हैं। इन आकाशीय पिण्डों को ‘क्षुद्रग्रह’ कहते हैं। ये मंगल और बृहस्पति ग्रह के बीच में पाए जाते हैं।
उल्का पिण्ड (METEOROIDS)
सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाने वाले पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों को ‘उल्का पिण्ड’ कहते हैं। ये कभी-कभी पृथ्वी के इतने निकट आ जाते हैं कि पृथ्वी के वायुमण्डल के साथ रगड़कर जलने लगते हैं और जलकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं।
सूर्य (SUN)
सूर्य हाइड्रोजन, हीलियम जैसी बहुत गर्म गैसों से बना है, जो लगातार जलती रहती हैं। सौरमण्डल में सूर्य ही प्रकाश व ऊर्जा का एकमात्र स्रोत है। सूर्य हमारी पृथ्वी से लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूर है। इस कारण इसका प्रकाश लगभग 8.3 मिनट में पृथ्वी पर पहुँच पाता है। प्रकाश की चाल 3,00,000 किमी प्रति सेकेण्ड है। सूर्य को खोखला करके यदि उसमें पृथ्वी को भरा जाय तो सूर्य के अन्दर 13 लाख पृथ्वियाँ समा सकती हैं।
6 /1
पृथ्वी (EARTH)
हमारी पृथ्वी जिस पर हम निवास करते हैं, भी एक ग्रह है। यह दूरी के क्रम में सूर्य से तीसरे स्थान पर है। आकार में यह सौरमण्डल का पाँचवाँ सबसे बड़ा ग्रह है। यदि पृथ्वी सूर्य के अधिक निकट होती तो बहुत अधिक ताप के कारण यहाँ जीवन सम्भव नहीं होता और यदि अधिक दूरी पर होती तो अधिक ठण्ड के कारण यहाँ कोई जीवधारी न होता। पृथ्वी एकमात्र ऐसा ग्रह है जहाँ जीवन है। जीवन के लिए उपयुक्त दशाएँ केवल हमारी पृथ्वी पर ही मिलती हैं। इसी कारण इसे हरित ग्रह (ग्रीन प्लेनेट) कहते हैं।जल के कारण अंतरिक्ष से देखने पर यह नीले रंग की दिखाई देती है। इसलिए पृथ्वी को ‘नीला ग्रह’ (ब्लू प्लेनेट) भी कहते हैं।
चन्द्रमा (MOON)
चन्द्रमा, पृथ्वी का अकेला उपग्रह है। चन्द्रमा, पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है। इसकी पृथ्वी से दूरी लगभग 4 लाख किलोमीटर है। यह लगभग 27 दिन 7 घण्टे 43 मिनट (27.3 दिन लगभग) में पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करता है।
पुच्छल तारे (COMET)
चट्टानों, बर्फ, धूल और गैस के बने आकाशीय-पिण्ड होते हैं। अक्सर ये आकाशीय-पिण्ड अपनी कक्षा में घूमते हुए सूर्य के पास आ जाते हैं। सूर्य के ताप के कारण इसकी गैसंे और धूल वाष्प में बदल जाती हैं। यही वाष्प मुख्य पिण्ड से एक लम्बी सी चमकीली पूँछ के रूप में बाहर निकल जाती है। गुरुत्वाकर्षण के कारण इस तारे का सिर सूर्य की तरफ तथा पूँछ हमेशा ही बाहर की तरफ होती है, जो आपको चमकती दिखाई देती है।
महत्वपूर्ण तथ्य
बृहस्पति, शनि तथा अरुण के चारों ओर छल्ले (वलय) हैं। ये छल्ले विभिन्न पदार्थों के असंख्य छोटे-छोटे पिण्डों से बनी पट्टियाँ हैं। पृथ्वी से इन छल्लों को शक्तिशाली दूरबीन की सहायता से देखा जा सकता है।
सौरमण्डल के सभी सदस्य एक-दूसरे के खिंचाव के कारण संतुलित अवस्था में रहते हैं। अपने अक्ष पर घूमते हुए एक निश्चित मार्ग पर निरंतर गति करते रहते हैं। ये कभी एक-दूसरे के मार्ग पर नहीं जाते। इस कारण ही ये आपस में नहीं टकराते हैं। आकाशीय पिण्डों का अपने अक्ष पर घूमना ‘परिभ्रमण’ (ROTATION) कहलाता है। ग्रहों का सूर्य (तारा) के चारों ओर घूमना ‘परिक्रमण’ (REVOLUTION) कहलाता है।
हमारा सौरमण्डल तो ब्रह्माण्ड का एक बहुत छोटा भाग है। हमारे सौरमण्डल जैसे कई सौरमण्डल मिलकर एक ‘तारामण्डल’ बनाते हैं, जैसे-‘सप्तर्षि तारामण्डल’।
करोड़ों तारामण्डल मिलकर एक ‘मन्दाकिनी’ (Galaxy)का निर्माण करते हैं। मन्दाकिनी, आकाश में एक ओर से दूसरी ओर तक फैली चौड़ी सफेद लाखों तारों से भरी चमकदार पट्टी है। हमारी मन्दाकिनी का नाम (Milkyway) है। इस प्रकार की लाखों मन्दाकिनी मिलकर ब्रह्माण्ड (Universe) का निर्माण करती है।
---------------------------------------------------------------------------------------------------------
6 /2
पृथ्वी और चन्द्रमा
चन्द्रमा
चन्द्रमा हमारी पृथ्वी का एक मात्र उपग्रह है। जिस प्रकार पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है, उसी प्रकार चन्द्रमा भी अपने अक्ष पर घूमता हुआ पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है। इस क्रम में चन्द्रमा, सूर्य का चक्कर भी लगाता रहता है। जिस प्रकार पृथ्वी में अपना कोई प्रकाश नहीं है, उसी प्रकार चन्द्रमा में भी अपना कोई प्रकाश नहीं है।
यह सूर्य के प्रकाश को ही परावर्तित करता है, जो हमारी पृथ्वी पर 1.25 सेकण्ड में पहुँचता है। इसे हम चाँदनी कहते हैं।चन्द्रमा का आकार पृथ्वी के आकार का लगभग 1/4 (एक-चौथाई) है।
चन्द्रमा की परिस्थितियाँ जीवन के अनुकूल नहीं हैं। यहाँ न पानी है और न वायु। इस कारण यहाँ जीवन सम्भव नहीं है। चन्द्रमा की सतह पर पर्वत, मैदान और गड्ढ़े हैं, जो चन्द्रमा की सतह पर छाया बनाते हैं।
सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण
हमारे देश के खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने इस मान्यता का खण्डन कर, ग्रहण का सही कारण बताया कि सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण, पृथ्वी और चन्द्रमा की छायाओं के कारण होते हैं।पृथ्वी के घूमने के कारण एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा तक अपनी कलाओं को पूरा करने में चन्द्रमा को 29 दिन 12 घण्टे 44 मिनट लगते हैं। इस अवधि को ‘चन्द्रमास’ कहते हैं।अमावस्या से पूर्णिमा तक (बढ़ते चाँद) के पखवाड़े को ‘शुक्ल पक्ष’ कहते हैं।
जब चन्द्रमा, पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है , तब ‘सूर्यग्रहण’ होता है। जब पृथ्वी, सूर्य और चन्द्रमा के बीच में आ जाती है, तब ‘चन्द्रग्रहण’ होता है। चन्द्रग्रहण केवल पूर्णिमा के दिन और सूर्यग्रहण केवल अमावस्या के दिन होता है।
---------------------------------------------------------------------------------------------------------
6 /3
मानचित्रण
हम पृथ्वी पर रहते हैं, इसलिए पूरी पृथ्वी को एक साथ नहीं देख सकते। इसके लिए हम पृथ्वी से मिलती-जुलती आकृति का ग्लोब बनाते हैं। ग्लोब पर विश्व के सभी महाद्वीप और महासागर दिखाए जाते हैं, जो हमें एक साथ नहीं दिखते। इसलिए ग्लोब से हम विश्व का मानचित्र तैयार करते हैं, जिस पर हम पूरी दुनिया को एक साथ देख सकते हैं।
मानचित्र के प्रकार
मानचित्र विभिन्न प्रकार के होते हैं-
1. राजनैतिक मानचित्र - जिन मानचित्रों में राज्यों तथा विश्व के विभिन्न देशों की सीमाएँ दर्शाई गई हों, उन्हें राजनैतिक मानचित्र कहते हैं।
2. भौतिक मानचित्र - पृथ्वी के भौतिक स्वरूप जैसे नदियाँ, सागर, पर्वत, पठार, समतल मैदान आदि को दर्शाने वाले मानचित्र भौतिक मानचित्र कहलाते हैं।
गाँव, कस्बा, जिला, राज्य एवं देश को भी मानचित्र में दर्शाया जाता है।
जब बहुत सारे मानचित्रों का एक साथ संग्रह पुस्तक रूप में किया जाता है तो उसे ‘एटलस’ कहते हैं।
मानचित्र के तीन घटक हैं-
(1) दिशा (2) दूरी (3) प्रतीक
मानचित्र में दिशाएँ
बहुत पहले लोग दिशा जानने के लिए वह सूर्य की मदद लेते थे। उसे उगता देखकर पूरब और छिपता देखकर पश्चिम दिशा पहचान लेते थे।लोग धु्रवतारे से दिशाएँ मालूम करते थे। यह तारा हमेशा आकाश में उत्तर दिशा में रहता है , इसकी मदद से वे बाकी दिशाएँ भी पहचान लेेते थे। दक्षिणी गोलार्द्ध के लोग भी अपने आसमान में चमकते तारों से दिशाओं का अनुमान लगाते थे। आजकल हम लोग दिक्सूचक यन्त्र की सहायता से दिशाओं की जानकारी करते हैं। दिक्सूचक यंत्र (Compass) की चुम्बकीय सूई सदैव उत्तर व दक्षिण दिशा में रुकती है।
मानचित्र में तीर द्वारा दिशाएँ दर्शाई जाती हैं। मानचित्रों में ऊपर की ओर उत्तर दिशा और नीचे की ओर दक्षिण दिशा होती है। दाएँ हाथ पूरब और बाएँ हाथ पश्चिम होता है। इन चारों आधार-भूत दिशाओं के ज्ञात होने से मध्यवर्ती दिशाएँ- उत्तर-पूरब, दक्षिण-पूरब, दक्षिण-पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम दिशाएँ आसानी से जानी जा सकती हैं।
मानचित्र में दूरी
मानचित्र में जिस प्रकार से दिशाएँ तीर द्वारा दिखाई जाती हैं उसी प्रकार से दूरी पैमाने SCALE द्वारा दर्शाई जाती है।
भूगोल में पैमाने का प्रयोग दूरियाँ दिखाने के लिए किया जाता है। नक्शा या मानचित्र बनाने में यह अधिक उपयोगी है।
पैमाना या मापक (स्केल)
मान लीजिए, एक मानचित्र का मापक है- 1 सेमी = 100 किमी.यदि मानचित्र में दो स्थानों ‘क’ तथा ‘ख’ के बीच की दूरी 5 सेमी है, तो बताइए इन दोनों के बीच की वास्तविक दूरी कितनी होगी ? चूँकि 1 सेमी = 100 किमी. अतः दूरी 5 *100 =500 किमी
---------------------------------------------------------------------------------------------------------
6 /4
अक्षांश एवं देशान्तर
संसार के किसी देश या नगर की स्थिति जानने के लिए आपको ग्लोब या विश्व-मानचित्र की सहायता लेनी होगी। पृथ्वी की बड़ी आकृति को छोटे में दिखाने के लिए ग्लोब या मानचित्र का निर्माण करते हैं। ग्लोब पर महाद्वीप और महासागरों की आकृति, दिशा और दूरी पृथ्वी के अनुरूप होती है। जबकि मानचित्र पर कुछ विकृतियाँ आ जाती हैं। ग्लोब पृथ्वी का प्रतिरूप (मॉडल) होता है।
कुछ रेखाएँ दोनों धु्रवों को मिलाती हुई अर्द्ध वृत्ताकार बनी होती हैं इन्हें‘देशान्तर’ (Longitude) कहते हैं। इसी प्रकार कुछ रेखाएँ पूरब से पश्चिम या पड़ी रेखाएँ बनी होती हैं। इन्हें ‘अक्षांश रेखाएँ’ (Latitude) कहते हैं।
इन्ही रेखाओं की सहायता से हम पृथ्वी पर स्थित विभिन्न स्थानों की सही-सही स्थिति बताते हैं। पाठ -4
अक्षांश एवं देशान्तर
संसार के किसी देश या नगर की स्थिति जानने के लिए आपको ग्लोब या विश्व-मानचित्र की सहायता लेनी होगी। पृथ्वी की बड़ी आकृति को छोटे में दिखाने के लिए ग्लोब या मानचित्र का निर्माण करते हैं। ग्लोब पर महाद्वीप और महासागरों की आकृति, दिशा और दूरी पृथ्वी के अनुरूप होती है। जबकि मानचित्र पर कुछ विकृतियाँ आ जाती हैं। ग्लोब पृथ्वी का प्रतिरूप (मॉडल) होता है।
कुछ रेखाएँ दोनों धु्रवों को मिलाती हुई अर्द्ध वृत्ताकार बनी होती हैं इन्हें‘देशान्तर’ (Longitude) कहते हैं। इसी प्रकार कुछ रेखाएँ पूरब से पश्चिम या पड़ी रेखाएँ बनी होती हैं। इन्हें ‘अक्षांश रेखाएँ’ (Latitude) कहते हैं।
इन्ही रेखाओं की सहायता से हम पृथ्वी पर स्थित विभिन्न स्थानों की सही-सही स्थिति बताते हैं। जैसे आप अपने गाँव के नक्शे में अपने खेत की स्थिति व सीमा को नक्शे पर बनी रेखाओं की सहायता से जानते हैं।
अक्षांश
हमारी पृथ्वी अपने अक्ष या धुरी पर लगातार घूम रही है। अक्ष के दो सिरे हैं। ऊपरी सिरे को उत्तरी धु्रव तथा निचले सिरे को दक्षिणी धु्रव कहते हैं। दोनों धु्रवों के बीचो-बीच पृथ्वी के मध्य (बीच) का भाग बताने के लिए ग्लोब पर एक मोटी रेखा खीचीं जाती है। इसे भूमध्य रेखा और विषुवत वृत्त दो नामों से जाना जाता है। यह वृत्त पृथ्वी को दो बराबर भागों में बाँटता है। इसके ऊपर के आधे भाग कोउत्तरी गोलार्द्ध और निचले आधे भाग को दक्षिणी गोलार्द्धकहते हैं।अब हम कह सकते हैं कि अक्षांश रेखाएँ भूमध्य रेखा से उत्तर एवं दक्षिण दिशा की ओर खींची गई कोणीय दूरी होती हैं।
अक्षांशों को हम अंश या डिग्री (00) के द्वारा प्रदर्शित करते हैं। दोनों गोलार्द्ध में 90 धन 90 कुल 180 अक्षांश रेखाएँ बनेगी। उत्तरी गोलार्द्ध की अक्षांश रेखाओं को उत्तरी अक्षांश तथा दक्षिण गोलार्द्ध की अक्षांश रेखाओं को दक्षिणी अक्षांश कहते हैं। भूमध्य रेखा या शून्य डिग्री (00) अक्षांश वृत्त सबसे बड़ा वृत्त है। 90 डिग्री अक्षांश की लम्बाई ग्लोब पर शून्य (0) होती है। जो मात्र एक बिन्दु होता है।
कुछ महत्त्वपूर्ण अक्षांश रेखाएँ-
0 शून्य डिग्री अक्षांश को भूमध्य रेखा कहते हैं।
23 उत्तरी अक्षांश को कर्क रेखा कहते हैं।
23 दक्षिणी अक्षांश को मकर रेखा कहते हैं।
66 उत्तरी अक्षांश को आर्कटिक वृत्त (रेखा) कहते हैं।
66 दक्षिणी अक्षांश को अण्टार्कटिक वृत्त (रेखा) कहते हैं।
देशान्तर रेखाएँ
ग्लोब पर ध्रुव एक बिन्दु है। दोनों धु्रवों को मिलाती हुई खींची जाने वाली काल्पनिक रेखा को देशान्तर कहते हैं। ये रेखाएँ ग्लोब पर अर्द्धवृत्त बनाती हैं। धु्रव-बिन्दु के चारों ओर अधिकतम् 3600 का कोण बन सकता हैं अतः देशान्तर रेखाओं की कुल संख्या 360 होती है। इन्हें 1 डिग्री के अन्तराल पर अगर खींचा जाए तो ग्लोब पर कुल 360 देशान्तर रेखाएँ खींची जा सकती हैं।
लन्दन के निकट ग्रीनविच नामक स्थान से गुजरने वाली देशान्तर को शून्य डिग्री (00) या प्रधान देशान्तर (ग्रीनविच) रेखा मान लिया गया है। तब ग्रीनविच रेखा के ठीक पीछे 180 की देशान्तर रेखा होगी। 00 से 180 (दाहिने हाथ) पूर्वी देशान्तर तक के भाग कोपूर्वी गोलार्द्ध तथा 00 से 180 (बाएँ हाथ) पश्चिमी देशान्तर तक के भाग को पश्चिमी गोलार्द्धकहते हैं। इस प्रकार 00 और 180 देशान्तर पृथ्वी को लम्बवत रूप में दो भागों में विभाजित कर देती हैं। आप 00 देशान्तर रेखा (ग्रीनविच) को ग्लोब पर ढूँढि़ए और इसके पूरे घेरे पर उँगली फेरिए। उसके ठीक दूसरी तरफ 180 देशान्तर (अन्तर्राष्ट्रीय तिथि) रेखा होगी।
ग्लोब पर 180 पूर्वी व पश्चिमी देशान्तर रेखा एक ही होती है। देशान्तर रेखाओं के बीच की दूरी धु्रवों की ओर क्रमशः कम होती जाती है तथा धु्रवों पर ये बिन्दु पर परस्पर मिल जाती हैं।
कुछ महत्त्वपूर्ण देशान्तर रेखाएँ
00 देशान्तर रेखा को ग्रीनविच या प्रधान मध्याह्न रेखा कहते हैं।
180 देशान्तर रेखा को अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा कहते हैं।
देशान्तर और समय
पृथ्वी की आकृति गोलाकार है अतः इस प र सभी स्थानों पर एक ही समय पर सूर्य उदय नहीं होता। किसी एक स्थान पर सूर्योदय का समय है, तो किसी अन्य स्थान पर दोपहर है, तीसरे स्थान पर सूर्यास्त है तो किसी चौथे स्थान पर आधी रात है।पृथ्वी की सभी 360 देशान्तर रेखाएँ 24 घण्टे में बारी-बारी से सूर्य के सामने आती हैं। अतः पृथ्वी 24 घण्टे में 360 देशान्तर घूम जाती है। इसलिए पृथ्वी की घूर्णन गति 150 देशान्तर प्रतिघण्टा (360/24) या प्रति 10 देशान्तर 4 मिनट है। इस प्रकार प्रत्येक देशान्तर पर 4 मिनट के समय का अन्तर रहता है और 15 देशान्तरों पर 1 घण्टे का अन्तर आ जाता है। अतः प्रत्येक देशान्तर पर अलग-अलगसमय रहता है। इसे ‘स्थानीय समय’ कहा जाता है।
जिस समय ग्रीनविच में दोपहर के 12 बजे हों उस समय 30 अंश पूर्वी देशान्तर पर क्या समय होगा ? गणना करके लिखिए।चूँकि प्रत्येक देशान्तर पर स्थानीय समय अलग-अलग होता है। परिणाम स्वरूप रेल, डाक तथा संचार एवं अन्य दैनिक व्यवस्था में कठिनाइयाँ पैदा हो जाएँ। इस अव्यवस्था को दूर करने के लिए प्रत्येक देश अपनी केन्द्रीय देशान्तर रेखा को सम्पूर्ण देश का मानक (प्रामाणिक) समय मान लेता है। जैसे भारत ने 82 0 पूर्वी देशान्तर रेखा को प्रामाणिक देशान्तर रेखा तथा उसी देशान्तर के समय को ‘भारतीय प्रामाणिक समय’ या ‘मानक समय’ माना है, जो कि ग्रेटब्रिटेन (ग्रीनविच) के समय से 5 घण्टा आगे का है।
अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा
आपको मालूम है कि पृथ्वी गोल है, अतः प्रत्येक स्थान पर पूरब या पश्चिम किसी भी दिशा में यात्रा करके पहुँचा जा सकता है। ग्लोब पर 180 की पूर्वी व पश्चिमी देशान्तर रेखा एक ही रेखा होती है। यदि 00 देशान्तर रेखा से 180 पूर्वी देशान्तर की ओर चलें तो (180 ग 4 = 720 मिनट या 12 घण्टे) 12 घण्टे का समय बढ़ जाता है तथा 00 से 180 पश्चिमी देशान्तर की ओर यात्रा करें तो 12 घण्टे का समय कम हो जाता है। अतः 180 पूर्वी देशान्तर से ग्रीनविच (00) देशान्तर होते हुए 180 पश्चिमी देशान्तर तक यात्रा करने पर 24 घण्टे या एक दिन के समय का अन्तर आ जाएगा। इसलिए पूरब या पश्चिम की ओर से 180 देशान्तर को पार करने पर एक दिन घट या बढ़ जाएगा।इस अव्यवस्था को दूर करने के लिए 180देशान्तर रेखा के सहारे ‘अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा’ मान ली गई है। उदाहरण के लिए यदि जापान से संयुक्त राज्य अमेरिका जाने वाला एक जहाज इस रेखा को सोमवार सायं 5:00 बजे पार करता है तो दूसरी ओर रविवार का सायं 5ः00 बजे माना जाता है। इसके विपरीत यदि यात्री रविवार को सायं 5:00 बजे संयुक्त राज्य अमेरिका से जापान की ओर आता हुआ इस रेखा को पार करता है तो इस ओर सोमवार सायं 5:00 बजे माना जायेगा।
विषुवत वृत्त - धरातल पर उत्तरी व दक्षिणी धु्रव के बीचों-बीच शून्य डिग्री का काल्पनिक वृत्त।
कर्क-वृत्त - धरातल पर उत्तरी गोलार्द्ध में विषुवत वृत्त से 23 कोणीय दूरी पर खींचा गया काल्पनिक वृत्त।
-----------------------------------------------------------------------------
6 /5
पृथ्वी की गतियाँ
।1.सूर्य के सामने पृथ्वी के अपने स्थान पर चक्कर लगाने को उसकी दैनिक गति या परिभ्रमण कहते हैं।
2.पृथ्वी के सूर्य का एक पूरा चक्कर लगाने को उसकी वार्षिक गति या परिक्रमण कहते है।
पृथ्वी का परिभ्रमण
पृथ्वी को सूर्य के सामने अपने अक्ष पर एक चक्कर पूरा करने में 24 घण्टे का समय लगता है। इन चैबीस घण्टों का हिसाब हम घड़ी से रखते हैं। हमारा एक पूरा दिन 24 घण्टे का होता है।
पृथ्वी के पास अपना प्रकाश नहीं है। पृथ्वी को प्रकाश और ऊष्मा सूर्य से ही प्राप्त होती है
क्या आप जानते हैं, कि पृथ्वी पर दिन रात का क्रम कैसे चलता है
पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने पड़ता है वहाँ दिन और जो भाग सूर्य के सामने नहीं रहता है, वहाँ रात होती है। इस प्रकार से पूरी पृथ्वी पर 24 घण्टे में दिन-रात का एक चक्र पूरा हो जाता है। ग्लोब पर वह वृत जो दिन-रात को विभाजित करता है उसे प्रदीप्ति वृत्त या प्रकाश वृत्त कहते हैं।अब सोचिए अगर पृथ्वी अपने अक्ष पर न घूमती तो क्या होता ? पृथ्वी का आधा भाग जो सूर्य के सामने रहता वहाँ पर हमेशा दिन रहता और गर्मी रहती और सूर्य के सामने न पड़ने वाले पृथ्वी के भाग पर हमेशा अंधेरा रहता और ठंड रहती, ऐसी स्थिति में क्या होता ?
आइए पता करें कि पृथ्वी किस दिशा से किस दिशा की ओर घूमती है। हमें सूर्य प्रतिदिन पूर्व से पश्चिम की ओर चलता हुआ दिखाई पड़ता है लेकिन यह सच नहीं है।
हमें सूर्य पूर्व से पश्चिम चलता हुआ प्रतीत होता है जबकि सूर्य नहीं चलता वरन् पृथ्वी अपने अक्ष पर सूर्य का चक्कर लगाते हुए पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर घूमती है।
पृथ्वी की वार्षिक गति या परिक्रमण-
पृथ्वी की वार्षिक गति या परिक्रमण-
पृथ्वी केवल अपने अक्ष पर ही नहीं घूमती है, वरन् अपने अक्ष पर घूमते हुए सूर्य के चारों और चक्कर भी लगाती है। सूर्य का एक चक्कर लगाने में पृथ्वी को 365 दिन (365 दिन 6 घण्टे) लगते हैं। इसी कारण पृथ्वी का एक वर्ष 365 दिन का होता है। जिसका हिसाब हम कैलेण्डर से रखते हैं। गणना की सुविधा के लिए हम 6 घण्टे की अवधि तीन वर्ष तक छोड़ देते हैं, चैथे वर्ष इस समय को जोड़ लेते हैं तो एक दिन बढ़ जाता है और वर्ष 366 दिन का हो जाता है। इसी लिए चैथे वर्ष फरवरी 29 दिन की होती है। इसे हम अधिवर्ष या लीप वर्ष ; कहते हैं। पृथ्वी की इस गति को हम उसकी वार्षिक गति या परिक्रमण कहते हैं।
पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर वार्षिक परिक्रमण कैसे करती है,
पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमते हुए सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। इस स्थिति में पृथ्वी अपने भ्रमण कक्ष में सीधी न होकर सदैव 23 1/2° डिग्री झुकी रहती है और अपने कक्षीय सतह के साथ 66 1/2º का कोण बनाती है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा वृत्ताकार में न कर के अण्डाकार (दीर्घवृत्तीय) पथ पर करती है। भू-अक्ष सदा एक ही दिशा में झुका रहता है, इसी कारण वर्ष में 6 महीने उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य की ओर झुका रहता है, और 6 महीने दक्षिणी गोलार्द्ध सूर्य की ओर झुका रहता है।
एक ही दिशा में पृथ्वी के झुकाव को समझने के लिए मैदान पर एक बड़ा दीर्घवृत्त बनाइए। छड़ी में लगा हुआ एक झण्डा लीजिए। दीर्घवृत्त वाली रेखा पर कहीं भी खड़े हो जाइए। वहाँ से दूर पृथ्वी का अक्ष हमेशा एक ही स्थिति में झुका हुआ रहता है।
पृथ्वी के अक्ष के निश्चित दिशा में झुके होने एवं सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाने के कारण ही ऋतु परिवर्तन होता है। अगर पृथ्वी न झुकी होती और सूर्य के चारों तरफ न घूमती तो ऋतु परिवर्तन न होता।
आश्चर्य होगा कि पृथ्वी के उत्तरी धु्रव तथा दक्षिणी धु्रव वाले भाग में लगातार 6 महीने के दिन और 6 महीने की रात होती है। ठीक इसके विपरीत 22 दिसम्बर की स्थिति होती है। इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध के सूर्य की ओर झुके होने के कारण सूर्य की सीधी किरणें मकर रेखा पर पड़ती हैं। अतः दक्षिणी गोलार्द्ध में लम्बे दिन तथा छोटी रातों वाली ग्रीष्म ऋतु होती है। दक्षिणी धु्रव में 6 महीने का दिन होता है। इस स्थिति को सूर्य का दक्षिणायन होना या मकर संक्रान्ति (दक्षिण अयनांत कहते हैं।
-------------------------------------------------------------------------------------------------------
6 /6
पृथ्वी के प्रमुख परिमण्डल
जब भी कोई आप से पूछता है कि आप कहाँ रहते हैं? आप हमेशा बताते हैं, घर पर। आपका घर कहाँ पर है ? आप कहते हैं पृथ्वी पर। ऐसा क्यों ? पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जहाँ जीवन के लिए आवश्यक तत्व मौजूद हैं। ये आवश्यक तत्व हैं- भूमि, जल तथा हवा।
आप पृथ्वी के जिस भाग पर खड़े हैं वह पृथ्वी का ठोस भाग है। इस भाग को स्थलमण्डल कहते हैं। अब आप इस ठोस भाग में खड़े-खड़े दूर-दूर तक ऊपर देखिए। यहाँ पर हवा के रूप में पृथ्वी को चारों ओर से घेरती हुई आॅक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाइ आॅक्साइड तथा दूसरी गैसें पाई जाती हैं। इसे वायुमण्डल कहते हैं और जहाँ पृथ्वी के बहुत बड़े भाग पर जल पाया जाता है, उसे ‘जल मण्डल’ कहते हैं।
जहाँ स्थल, जल एवं हवा एक साथ मिलते हैं, वहाँ सभी प्रकार की वनस्पतियाँ, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी आदि का जन्म होता है यह जीवमण्डल कहलाता है।
ये चारों पृथ्वी के परिमण्डल के भाग हैं।
हमारी गोल पृथ्वी के केन्द्र को क्रोड कहा जाता है। क्रोड के ऊपर की परत को मैण्टल कहते है। और मैण्टल के बाहर की परत को भूपर्पटी कहते है।महाद्वीप-समुद्र तल से ऊपर उठे हुए विशालतम् भू-भाग को महाद्वीप कहते हैं - जैसे एशिया।
महासागर-पृथ्वी के ऊपरी धरातल पर बड़ी-बड़ी गहरी खाइयाँ एवं खड्ड आपस में मिले हुए हैं, जो खारे पानी से भरे हैं। ये विशाल जलराशियाँ ही महासागर कहलाते हैं- जैसे प्रशान्त महासागर।
स्थल मण्डल- हमारी पृथ्वी पर सात (7) महाद्वीप हैं- एशिया, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, अण्टार्कटिका, यूरोप एवं आस्टेªलिया। ये सभी महासागरों से घिरे हैं। महाद्वीपों का अधिकांश भाग उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है। जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में महासागरों का अधिक भाग है।
21 मार्च और 23 सितम्बर को सूर्य की किरणें किस अक्षांश रेखा पर सीधी पड़ रही हैं ? भूमध्य रेखा (विषुवत वृत) पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ने के कारण पूरी पृथ्वी पर दिन रात बराबर होते हैं इस स्थिति को ‘विषुव’ कहते हैं। 23 सितम्बर को दक्षिणी गोलार्द्ध में बसंत ऋतु और उत्तरी गोलार्द्ध में शरद ऋतु और 21 मार्च को इसके विपरीत उत्तरी गोलार्द्ध में बसंत ऋतु और दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद ऋतु होती है।
.पृथ्वी का अक्ष अपने कक्ष तल में सदा एक ही दिशा में 23½º झुका रहता है।
.21 मार्च को सूर्य की किरणें भूमध्य रेखा पर सीधी पड़ती हंै।
.21 जून को सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर सीधी पड़ती हैं।
.21 मार्च से 23 सितम्बर तक की अवधि में सूर्य की किरणें उत्तरी गोलार्द्ध के किसी न किसी भाग में सीधी पड़ती हैं।
.22 दिसम्बर को सूर्य की किरणें मकर रेखा पर सीधी पड़ती हैं।
.23 सितम्बर को सूर्य की किरणें पुनः विषुवत रेखा पर सीधी चमकती हैं।
एशिया
भारत जिस विशाल भू-भाग का अंश है, इसे एशिया महाद्वीप कहते हैं। इस महाद्वीप में अनेक देश स्थित हैं- जैसे- चीन, ईरान, जापान आदि।
एशिया महाद्वीप के उत्तर में उत्तरी धु्रव (आर्कटिक महासागर) तथा दक्षिण में हिन्द महासागर है। हिन्द महासागर का नाम भारत के हिन्द नाम के आधार पर पड़ा है। एशिया महाद्वीप के पश्चिम में यूरोप महाद्वीप है, यूरोप तथा एशिया मिलकर यूरेशिया कहलाते हैं।
सबसे ऊँची पर्वत श्रेणी हिमालय पर्वत, इसी महाद्वीप में स्थित है। विश्व की सबसे ऊँची चोटी ‘माउण्ट एवरेस्ट’ (8850 मीटर) हिमालय पर्वत में स्थित है। इसके अलावा ‘दुनिया की छत’ कहा जाने वाला ‘तिब्बत का पठार’, दक्कन का पठार, पामीर का पठार एशिया महाद्वीप के प्रमुख पठार हैं। गंगा, यमुना, सतलज, सिन्धु, दजला-फरात, ह्वांगहो, इरावदी, ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ इसी महाद्वीप में बहती हैं। इन्हें एटलस में ढूँढ़िए।
सएशियाई मानसूनी जलवायु और जल संरक्षण की जरूरत-मानसूनी जलवायु की महत्वपूर्ण विशेषता है वर्ष के तीन-चार माह में ही लगभग 80 प्रतिशत जल वर्षा हो जाती है। बाकी बचे महीनों में पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। किसानों की फसलें सूखने लगती हैं, जानवरों के लिए चारे की कमी हो जाती है और कई जगह तो अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, खाद्य पदार्थों जैसे गेहूँ, दाल, सब्जी, फल-फूल की बहुत कमी हो जाती है। लोग भूख से मरने लगते हैं।
सऊपर की स्थितियों से कैसे बच सकते हैं? सोचो तो पाओगे कि बारिश के दिनों में बहुत तीव्र और मूसलाधार वर्षा होती है और बहुत सारा पानी नदियों से बहता हुआ समुद्र में चला जाता है। अगर/यदि इस बरसाती जल को हम रोक कर, उसे संरक्षित कर सकें तो बाद में वही हमारी जरूरतें पूरी कर सकता है। इसके माध्यम से हम जमीन के अन्दर पानी की मात्रा बढ़ा सकते हैं जिससे हमारे कुँए नहीं सूखेंगे और हमारी फसलों को पानी मिल जाएगा। अनाज का उत्पाद बढ़ेगा। हमारे देश में कोई भूखा नहीं सोएगा।
अफ्रीका महाद्वीप
इस महाद्वीप में उत्तर-पश्चिम में एटलस पर्वत, उत्तर में सहारा का मरुस्थल स्थित है तथा इसके मिस्र देश में विश्व की सबसे लम्बी नील नदी बहती है। इसकी प्रमुख नदियों में नाइजर, कांगो, लिम्पोपो प्रमुख हैं।
कांगों नदी भूमध्य रेखा को दो बार काटती है जबकि लिम्पोपो नदी मकर रेखा को दो बार काटती है।
विक्टोरिया जलप्रपात विश्व प्रसिद्ध है, जो अपनी सुन्दर प्राकृतिक छटाओं के लिए जाना जाता है। संसार में प्रसिद्ध हीरे-सोने की सबसे बड़ी खान ड्रेकेन्सबर्ग की खानें हैं। मिस्र देश में विश्व प्रसिद्ध पिरामिड हैं। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि सबसे पहले मानव का जन्म तथा विकास इसी महाद्वीप पर हुआ। मानव यहीं से जाकर दूसरे महाद्वीपों में बसे हैं। इस महाद्वीप का नाम अफ्रीका है। इस महाद्वीप का दो तिहाई भाग भूमध्य रेखा के उत्तर तथा एक तिहाई भाग भूमध्य रेखा के दक्षिण में पड़ता है।
इस महाद्वीप के पूरब, पश्चिम और उत्तर में कौन-कौन से महासागर स्थित हैं, इनके नाम लिखिए। उत्तरी अमेरिका महाद्वीप
भारत की खोज के लिए निकला कोलम्बस खोजते-खोजते ‘वेस्टइण्डीज’ पहुँच गया ? साहसी कोलम्बस ने इस ‘नई दुनिया’ की खोज की। वेस्ट इण्डीज के उत्तर-पश्चिम में उत्तरी अमेरिका महाद्वीप स्थित है।
उत्तरी अमेरिका के पश्चिम में प्रशान्त महासागर है और पूरब में उत्तरी अटलाण्टिक महासागर स्थित है। इस महाद्वीप के उत्तर में आर्कटिक महासागर स्थित है जिसे उत्तरी धु्रव महासागर भी कहते हैं। इस महाद्वीप से होकर कर्क रेखा जाती है। कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा मैक्सिको उत्तरी अमेरिका के प्रमुख देश हैं। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के बीच पनामा नहर भू-भाग काटकर बनाई गई है जो अटलाण्टिक तथा प्रशान्त महासागरों को जोड़ती है।
उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी भाग में राॅकीज पर्वत तथा पूरब में अप्लेशियन पर्वत श्रेणियाँ स्थित हैं। इसके मध्य में उत्तर से दक्षिण मिसीसिपी-मिसौरी नदी बहती है।
दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप
यह महाद्वीप उत्तरी अमेरिका के दक्षिण में स्थित है। इसीलिए इस महाद्वीप को दक्षिणी अमेरिका कहते हंै। यहाँ की आमेजन घाटी) अपनी वनस्पतियों तथा घने वन के लिए प्रसिद्ध है। इस महाद्वीप के पश्चिम भाग में एण्डीज पर्वत, उत्तर से दक्षिण फैला हुआ है। भूमध्यरेखा इस महाद्वीप के उत्तरी भाग से होकर जाती है।
यूरोप महाद्वीप
इस महाद्वीप के पूरब में यूराल तथा काकेशस पर्वत एशिया महाद्वीप को इससे अलग करते हैं। इसके उत्तर में आर्कटिक महासागर तथा दक्षिण में भूमध्य सागर स्थित है।
अंटार्कटिका महाद्वीप
यह महाद्वीप दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण धु्रव के आसपास स्थित है। यह आर्कटिक वृत्त के दक्षिण में स्थित हैं। आप यूरोप तथा आस्टेªलिया महाद्वीप को मिलाकर तुलना करके देखिए। दिए गए रेखाचित्र संख्या 6.3 की सहायता से आपको मालूम होगा कि इस धु्रव-प्रदेश क्षेत्र का क्षेत्रफल कितना बड़ा है ? जो सदा मोटी बर्फ की सफेद चादर से ढका रहता है, इसीलिए यहाँ पर रहना कोई मानव पसन्द नहीं करता, फिर भी यहाँ बहुत देशों के शोध-केन्द्र स्थापित किए गए हैं। भारत ने भी यहाँ दो ऐसे शोध केन्द्र खोले हैं जिनका नाम ‘दक्षिणी गंगोत्री’ तथा ‘मैत्री’ रखा गया है। तीसरा शोध केन्द्र-जो अभी हाल ही में खोला गया है, का नाम ‘भारती’ रखा गया है।
आस्टेªलिया महाद्वीप
आप ने आस्टेªलिया की क्रिकेट टीम ‘कंगारूओं’ के बारे में सुना होगा। ‘कंगारू’ जानवर आस्टेªलिया महाद्वीप में पाया जाता है। इसीलिए आस्टेªलिया के क्रिकेट खिलाड़ियों को ‘कंगारू’ कहा जाता है।
आस्टेªलिया महाद्वीप दक्षिणी गोलार्द्ध में - भूमध्य रेखा के दक्षिण में स्थित है। मकर रेखा इसके बीच से गुजरती है। इसके चारों ओर महासागर स्थित हैं।
इस प्रकार यह चारों ओर महासागरों से घिरे होने के कारण ‘द्वीपीय स्थिति’ में हैं। इसीलिए इसे ‘द्वीपीय महाद्वीप’ कहते हैं। यहाँ मरे व डार्लिंग नदियाँ बहती हैं, पूरब में गे्रट-डिवाइडिंग रेन्ज पर्वतमाला स्थित है। इसके उत्तर-पूरब में विश्व की सबसे बड़ी प्रवाल भित्ति है।
महाद्वीपों के अतिरिक्त स्थलमण्डल में अनेक द्वीप भी हैं। द्वीप अपेक्षाकृत छोटा भूखण्ड होता है। जो चारों ओर जल से घिरा होता हैं जैसे- श्रीलंका, लक्षद्वीप, जापान, न्यूजीलैण्ड, ग्रीनलैण्ड आदि।
जलमण्डल
हमारी पृथ्वी में लगभग तीन चैथाई (71 प्रतिशत) भाग जल तथा लगभग एक चैथाई (29 प्रतिशत) स्थल है। आप दिए गए मानचित्र संख्या 6.2 को देखिए और तुलना कीजिए कि धरातल पर अधिक नीला भाग फैला हुआ है कि स्थल भाग। यही नीले भाग महासागर हैं। ये महासागर आपस में जुडे हुए हैं। इसे विश्व के मानचित्र संख्या 6.2 पर तथा दिए गए महासागरों की नाम सूची में देखकर आप पता कीजिए कि कौन-सा महासागर सबसे बड़ा है-
क्रमांक महासागर का नाम क्षेत्रफल (करोड़ वर्ग किमी0)
1 . प्रशान्तमहासागर 16.5
2. अटलाण्टिक महासागर 08.2
3 . हिन्द महासागर 07.3
4. आर्कटिक महासागर 01.4
5. दक्षिणी महासागर 0.20
महासागरीय जल सदा गतिशील रहता है। इसमें ज्वार-भाटा लहरें तथा धाराएँ चलती रहती हैं। महा सागरीय जल खारा होता है। समुद्री तट (महासागर तट) को शून्य ऊँचाई वाला माना जाता है। महासागर की गहराई हो अथवा स्थल खण्ड के पर्वत, पठार या मैदानांे की ऊँचाई हो, ये सभी (गहराई/ऊँचाइयाँ) महासागर तट से नापी जाती हैं। हमारी पृथ्वी पर जल भाग अधिक है इसीलिए इसे नीला ग्रह कहते हंै। जल के तीन रूप होते हैं द्रव (जल) ठोस (बर्फ), तथा वाष्प (गैस)।-
अटलाण्टिक महासागर के पश्चिमी तट का आकार अंगे्रजी के एस ;ैद्ध अक्षर जैसा है तो बताइए इसके पश्चिम तट पर स्थित कौन सा महाद्वीप है।
सोचकर बताइए- आप जो जल पीते हैं वह कैसा होता है ? (खारा/मीठा) वह जलीय भाग हमारी पृथ्वी पर कितना है ?
वायुमण्डल
‘पृथ्वी के चारों ओर एक आवरण है, जिसमें नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बनडाई आॅक्साइड, आॅर्गन इत्यादि गैसें हैं। यह सभी गैसें हमारी पृथ्वी को चारांे ओर से घेरे
हुए हैं। यह वायु आवरण जो आकाश की लगभग 1600 किमी ऊँचाई तक फैला हुआ है और पृथ्वी के साथ साथ बराबर घूमता रहता है वायुमण्डल कहलाता है।
वायुमण्डल में मुख्यतः नाइट्रोजन 78 प्रतिशत तथा आॅक्सीजन 21 प्रतिशत और अन्य सभी गैसों में कार्बनडाइआॅक्साइड, आॅर्गन इत्यादि 1 प्रतिशत की मात्रा में हैं। नाइट्रोजन जीव-जन्तुओं की वृद्धि के लिए जरूरी है तो आॅक्सीजन हमारी प्राणवायु है।
ऊँचाई के साथ-साथ हवा का घनत्व घटता जाता है और इसी कारण हवाओं का भार कम हो जाता है। यही कारण है कि समुद्री क्षेत्रों पर हवा का घनत्व अधिक और ऊँचाइयों पर हवा का घनत्व कम रहता हैं। धरातल से ऊँचाई के बढ़ने के साथ-साथ हवाओं का तापमान घटता जाता है। यही कारण है कि ऊँचे पर्वत शिखरों पर बर्फ जमी रहती है। हवा का दाब भी कम हो जाता है, इसीलिए पर्वत पर चढ़ने वाले पर्वतारोही साथ में साँस लेने के लिए आॅक्सीजन गैस से भरा सिलेण्डर रखते हैं।
जीव मण्डल
आप जहाँ भी रहते हैं आपको आस-पास कौआ, तोता, चूहे, बिल्ली इत्यादि पशु-पक्षी देखने को मिलते होंगे। इसी प्रकार वनों में जंगली जीव-जन्तु तथा विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ जैसे- पेड़, झाड़ियाँ एवं घासें मिलती हैं। इन वनस्पतियों को खाने वाले जीव जैसे-बकरी, खरगोश.. इत्यादि हैं, जो एक साथ ही मिलते हैं जिन्हें शाकाहारी जीव कहते हैं।
इन शाकाहारी जीवों को खाने वाले जीव जैसे शेर, भेड़िया आदि को ‘मांसाहारी’ जीव कहा जाता है। इन वनस्पतियों, शाकाहारी तथा मंासाहारी जीवों के सम्मिलित रूप को ‘स्थलीय जीव मण्डल’ कहा जाता है।
महासागर, नदी व झील के जल में भी घासें तथामहासागर, नदी व झील के जल में भी घासें तथा शैवाल मिलती हैं। इन जलाशयों में अनेक प्रकार की मछलियाँ मिलती हैं। इन्हें महासागरीय अथवा ‘जलीय जीवमण्डल’ कहते हैं।
मानव भी जीव मण्डल का एक सदस्य है जो स्थलीय एवं जलीय जीवमण्डल से अपना भोजन ग्रहण करता है। जैसे शाकाहारी मानव जीव मण्डल से फल, फूल तथा सब्जी प्राप्त करता है। जबकि मांसाहारी मानव, जीवों जैसे बकरी, मछली, मुर्गा इत्यादि को भी खाता है।
मानव, जीव मण्डल को क्षति भी पहुँचाता है, जैसे वनस्पतियों को काटता है, जीवों का शिकार करता है। इसे ‘जीवमण्डलीय प्रदूषण’ कहा जाता है। मानव उद्योग-धन्धों द्वारा धुआँ, कार्बन डाई आॅक्साइड विसर्जित करता है जिससे वायुमण्डल का ताप बढ़ जाता है, जिसे भूमण्डलीय तापन कहा जाता है। यही वायुमण्डल प्रदूषण कहलाता है। जब आप गन्दगी, मलबा या कचरा जल में विसर्जित करते हैं तो जल प्रदूषित होता है। इसे जल प्रदूषण कहते हैं।
वायुमण्डल के प्रदूषित होने से वर्षा पर कुप्रभाव पड़ता है।
प्राकृतिक आपदाओं का जन्म होता है, जैसे कभी तेज तूफान तो कभी कड़ाके की ठंड जिससे जीव-जन्तु आदि सभी प्रभावित होते हैं।
---------------------------------------------------------------------------------------------------------
6 /7
भारत की स्थिति
जिस प्रकार आपके गाँव के चारों ओर अनेक गाँव स्थित हैं और आपका गाँव उन गाँवों के बीच में स्थित है। उसी प्रकार अपने देश भारत के चारों ओर भी अनेक देश स्थित हैं और भारत उनके बीच में स्थित है।
सदक्षिण से उत्तर की ओर भारत की मुख्य भूमि 8 डिग्री 4 मिनट (804’) उत्तरी अक्षांश से 37 डिग्री 6 मिनट (3706’) उत्तरी अक्षाशों के बीच स्थित है।
सपश्चिम से पूर्व की ओर भारत की मुख्य भूमि 68 डिग्री 7 मिनट (680 7’) पूर्वी देशान्तर से 970 डिग्री 25 मिनट (97025’) पूर्वी देशान्तरों के बीच स्थित है।
भारत की लम्बाई एवं चैड़ाई को भी जानिए
पूर्व में अरुणाचल प्रदेश से लेकर पश्चिम में गुजरात तक की चैड़ाई 2933 किमी है। उत्तर में जम्मू-कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक की लम्बाई 3,214 किमी है। भारत का क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किलोमीटर है।
कर्क रेखा (23 0 उ0 अक्षांश) देश के लगभग मध्य भाग से गुजरती है।
भारत उत्तर में हिमालय पर्वत श्रेणी, पश्चिम में अरब सागर, पूरब में बंगाल की खाड़ी तथा दक्षिण में हिन्द महासागर से घिरा है। स्थल का वह भाग जो तीनांे ओर से समुद्र से घिरा होता है उसे प्रायद्वीप ;च्म्छप्छैन्स्।द्ध कहते हंै। भारत तीनों ओर समुद्र से घिरा है इसलिए भारत प्रायद्वीपीय देश कहलाता है। भारत के दो द्वीप समूह भी हैं-
1.लक्षद्वीप समूह
2.अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह
भारत के पड़ोसी देश
इसी प्रकार जो देश हमारे देश की सीमा से जुड़े हैं, वह हमारे पड़ोसी देश हैं। भारत के पड़ोसी देशांे के नाम नीचे दिए गए हैं। वह भारत के किस दिशा में स्थित हंै लिखिए।
देश का नाम भारत की किस दिशा में स्थित है
चीन उत्तर
भूटान............................
नेपाल............................
बांग्लादेश............................
म्याँमार............................
श्रीलंका...........................
पाकिस्तान............................
अफगानिस्तान............................
अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा पर तुर्कमेनिस्तान..................... और तजाकिस्तान हैं अफगानिस्तान के दक्षिण पूर्व में पाकिस्तान है तथा पश्चिम में.....................है।
भारत और उसके पड़ोसी देशों में सांस्कृतिक समानता है। बौद्ध धर्म का प्रसार भारत के सभी पड़ोसी देशों में हैं, जिनके प्रमाण इन देशों में मिलते हैं।
अपने देश को भी 29 राज्यों एवं 7 केन्द्रशासित क्षेत्रों में बाँटा गया है। इन्हें) में देखिए।
केन्द्रशासित क्षेत्र उन क्षेत्रों को कहा जाता है जिनमें शासन व प्रशासन केन्द्र सरकार द्वारा संचालित किया जाता है।
केन्द्र शासित क्षेत्र और उनकी राजधानियाँ
केन्द्र शासित क्षेत्र राजधानी
(1) अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह पोर्ट ब्लेयर
(2) लक्षद्वीप कवरत्ती
(3) दमन और दीव दमन
(4) दादरा और नगर हवेली सिलवासा
(5) दिल्ली दिल्ली
(6) चण्डीगढ़ चण्डीगढ़
(7) पुदुच्चेरि (पाण्डिचेरी ) पुदुच्चेरि (पाण्डिचेरी)
------------------------------------------------------------------------------------------------------
6 /8
भारत का धरातल
धरातलीय स्वरूप के आधार पर भारत को चार भागों में बाँटा जाता है, (1) उत्तर का पर्वतीय भाग (2) मध्य का मैदानी भाग (3) दक्षिण का पठारी भाग। तथा (4) तटवर्ती मैदान।
1. उत्तर का पर्वतीय भाग
वह आकृति जो आस-पास के क्षेत्र से बहुत ऊँची हो तथा जिसका आधार बहुत चैड़ा और शिखर नुकीला हो, पर्वत कहलाता है।
भारत की उत्तरी सीमा से लगी हुई एक विशाल पर्वत शृंखला है, जिसे हिमालय के नाम से जाना जाता है। हिमालय का अर्थ है हिम$आलय अर्थात् ‘बर्फ का घर’। हिमालय को तीन समानान्तर श्रेणियों में बाँटा गया है। आइए इन्हें जानें-
हिमालय का जन्म कैसे हुआ आइए जानें-
आज से करोड़ों वर्ष पूर्व हिमालय की जगह एक सागर था जिसे टिथीस महासागर कहा जाता था। इस विशाल सागर के उत्तर और दक्षिण में क्रमशः अंगारा लैण्ड और गोंडवाना लैण्ड नामक दो भू-भाग थे। अंगारा लैण्ड और गोंडवाना लैण्ड से निकलकर बहने वाली नदियों का पानी इस सागर में गिरता था। पानी के साथ बहकर आया मलवा सागर की तलहटी में पर्त दर पर्त जमा हो गया। पृथ्वी की आन्तरिक हलचल के कारण सागर की तलहटी में जमा हुआ परतदार मलबा मोड़दार पर्वत के रूप में ऊपर उठता गया, जिससे विश्व की सबसे ऊँची पर्वत शृंखला का निर्माण हुआ।
हिमाद्रि- हिमाद्रि, हिमालय पर्वत की उत्तर की ओर सबसे ऊँची श्रेणी है। संसार का ऊँचा शिखर इसी श्रेणी में स्थित है, जिसे एवरेस्ट शिखर कहते हैं, जिसकी ऊँचाई 8850 मीटर है। इस श्रेणी पर अनेक हिमनद (ग्लेशियर) मिलते हैं जिनसे अनेक नदियाँ निकलती हैं।
लघु या मध्य हिमालय- यह हिमाद्रि श्रेणी के दक्षिण में स्थित है। इस श्रेणी में मसूरी, शिमला, श्रीनगर, डलहौजी, नैनीताल, अल्मोड़ा, कुल्लू आदि नगर स्थित हैं। पश्चिम में हिमाद्रि और मध्य हिमालय श्रेणियों के बीच कुछ दूरी हो जाने से कश्मीर की रमणीक घाटी बन गई है।
शिवालिक श्रेणी- यह लघु या मध्य हिमालय के दक्षिण भाग में कम ऊँचाई की पर्वत श्रेणी है। इसकी ऊँचाई 900 मीटर से 1200 मीटर तथा चैड़ाई 10 से 50 किमी है।
पश्चिम से पूरब तक हिमालय का विस्तार सिन्धु नदी से ब्रह्मपुत्र नदी तक है। पश्चिम में इसकी चैड़ाई अधिक और पूरब में इसकी चैड़ाई कम है।
हिमालय पर्वत से लाभ
हिमालय पर्वत भारत के उत्तर में पश्चिम से पूरब दिशा तक एक पहरेदार के रूप में स्थित है।
सयह पर्वत उत्तर की ओर से आने वाली ठण्डी हवाओं को रोकता है। यदि हिमालय पर्वत न होता तो हमारी जलवायु ठण्डी और शुष्क होती। साथ ही दक्षिणी पश्चिमी मानसून के समय आने वाली मानसूनी हवाओं को वापस भारत की ओर मोड़कर वर्षा कराने में सहायक है।
हिमालय पर्वत में अनेक जड़ी-बूटियाँ पाई जाती हैं जो विभिन्न रोगों के उपचार के लिए प्रयोग की जाती हैं।
हिमालय पर्वत के अन्तर्गत अनेक पर्यटन स्थल जैसे कश्मीर, शिमला, मसूरी, कुल्लू-मनाली आदि पाए जाते हैं।
2. दक्षिण का पठार
उत्तर के विशाल मैदान तथा तटीय भागों के बीच की विस्तृत उच्च भूमि को दक्षिण का पठार या प्रायद्वीपीय पठार कहते हैं। यह दो भागों में बँटा है-
दक्कन का पठार - यह पठार प्राचीन कठोर, रवेदार चट्टानों में मिलकर बना है। यह नर्मदा व ताप्ती नदी के दक्षिण में त्रिभुजाकार रूप में स्थित है। इसके पश्चिम में पश्चिमी घाट के पर्वत और पूरब में पूर्वी घाट के पर्वत स्थित हैं। ये पर्वत दक्षिण-पश्चिम मानसून को रोकते हैं, जिससे पश्चिमी तट पर अधिक वर्षा होती है और पूरब के भागों में कम वर्षा होती है। दक्कन के पठार में कपास का उत्पादन होता है। पश्चिमी घाट में थालघाट, भोरघाट और पालघाट के दर्रे हैं, जिनसे होकर पूर्वी भाग से पश्चिमी तट के लिए रेलमार्ग जाते हैं। महाराष्ट्र में ज्वालामुखी से निर्मित एक लावा का पठार है।
मालवा का पठार - यह पठार नर्मदा नदी तथा विन्ध्याचल पर्वत के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इसके उत्तर में बुन्देलखण्ड तथा बघेलखण्ड क्षेत्र स्थित हैं। नर्मदा और ताप्ती नदियाँ इस पठार से बहती हुई अरब सागर में गिरती हैं। यह भाग खनिजों का विशाल भण्डार है। प्रायद्वीपीय भारत के उत्तरी- पूर्वी भाग में छोटा नागपुर का पठार है, जो खनिज सम्पत्ति के लिए विख्यात है।
दक्षिण के पठार का महत्त्व
सइस पठार में सागौन, चन्दन तथा अन्य बहुमूल्य वृक्ष पाए जाते हैं।
सइस पठार की प्राचीनतम शैलों में भारत के अधिकांश खनिज पाए जाते हैं।
सजल विद्युत उत्पादन के केन्द्र भी दक्षिण के पठार में स्थित हैं।
आप किसी ऊँचे स्थान पर खड़े होकर चारों तरफ देखिए। चारों ओर का धरातल कैसा दिखाई दे रहा है ? आइए चर्चा करें।
3. मध्य का मैदान
हिमालय के दक्षिण में भारत का विशाल उत्तरी मैदान है। यह मैदान संसार का बहुत ही उपजाऊ मैदान है। यह गंगा, सतलज, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों की उपजाऊ मिट्टी से बना है। इसका ढाल पश्चिम से पूरब की ओर है। इस मैदान की लम्बाई पूरब से पश्चिम तक 3200 किमी तथा चैड़ाई 150 किमी से 300 किमी है। शिवालिक पहाड़ियों के दक्षिण में कंकरीला ऊबड़-खाबड़ भाबर क्षेत्र और नम मिट्टी वाला तराई क्षेत्र उत्तर-पश्चिम से पूरब तक फैला है।तराई क्षेत्र में घने जंगल पाए जाते हैं, जिनको साफ करके भूमि को खेती के प्रयोग में लाया जाता है। तराई क्षेत्र के दक्षिण में बहुत उपजाऊ और चैरस विशाल मैदान है। विभिन्न फसलों जैसे- मक्का, गेहूँ, चावल, जौ, गन्ना, बाजरा, कपास आदि की खेती इन मैदानों में की जाती है। विभिन्न उद्योगों हेतु कच्चा माल भी इस क्षेत्र से मिलता है। मानव जीवन के लिए सभी सुविधाएँ इस क्षेत्र में उपलब्ध हैं। ।
मरुस्थल - भारत के पश्चिम भाग में मरुस्थल स्थित है। उत्तर भारत के मैदान के दक्षिण-पश्चिम में अरावली पर्वत की पहाड़ियों से लेकर पाकिस्तान की सीमा तक रेतीला भाग है, इसे ‘थार का मरुस्थल’ या महा मरुस्थल कहते हैं। यह सूखा (शुष्क), गर्म और रेतीला है, इसी कारण यहाँ वनस्पति की मात्रा बहुत कम पाई जाती है। उच्चावच की दृष्टि से यह पठार का ही एक भाग है।
4. तटीय मैदान
पूर्वी तथा पश्चिमी घाटों तथा समुद्र के बीच तटीय मैदान हैं। पश्चिम तट का मैदान कम चैड़ा है तथा इसमें कोई बड़ी नदी नहीं है, जबकि पूर्वी तट का मैदान अधिक चैड़ा है और उसमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टा हैं। पूर्वी तटीय मैदान में चावल की उपज अच्छी होती है और पश्चिमी तटीय मैदान में मसाले नारियल, कहवा तथा रबड़ की खेती की जाती है।
-
गंगा-यमुना का मैदान नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी से बना है।
-
समुद्र तटीय मैदान समुद्र और नदियों के द्वारा कटाव से बना है।
-
पहाड़ियों के बीच से जो रास्ते बनते हैं, उन्हें दर्रा कहते हैं।
-
पर्वतों के बीच जहाँ खड़े ढाल वाले भाग होते है, उन्हें घाट कहते हैं। कहीं-कहीं घाट, दर्रो जैसे होते हंै, जिनसे होकर आने जाने के मार्ग बनते हैं।
-
--------------------------------------------
-
6 /9
-
भारत: जलवायु
-
-
सामान्यतः भारत में प्रमुख ऋतुएँ होती हैं-दिसम्बर से फरवरी तक ठंडा मौसम (सर्दी)मार्च से मई तक गर्म मौसम (गर्मी)जून से सितम्बर तक दक्षिण-पश्चिम मानसून का मौसम (वर्षा)अक्टूबर और नवम्बर में मानसून के लौटने का मौसम (शरद)बसंत ऋतु वर्ष की सबसे सुहावनी ऋतु होती है। बसंत ऋतु आम तौर से फरवरी-मार्च (फागुन-चैत) माह में आती है। जब पेड़ों के पुराने पत्ते गिरते हैं और नए पत्ते निकलने लगते हैं।
मानसूनी हवाएँ
कर्क रेखा हमारे देश को लगभग दो बराबर भागों में विभाजित करती है। इसके दक्षिण का भाग उष्ण कटिबन्ध (गर्म जलवायु क्षेत्र) के अन्तर्गत आता है जबकि उत्तरी भाग उपोष्ण कटिबन्ध (कुछ कम गर्म) के अन्तर्गत आता है। इसलिए ग्रीष्म ऋतु में अधिक ऊँचाई वाले स्थानों को छोड़कर पूरे देश में स्थलीय भाग पर तापमान काफी ऊँचा रहता है और अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी में कम रहता है। इस कारण हवाएँ समुद्र से स्थल की ओर चलती हैं, लेकिन शीत ऋतु में उत्तरी मैदानों में तापमान काफी कम हो जाता है और हिमालय की पेटी के बहुत से भागों में तापमान हिमांक बिन्दु (शून्य डिग्री) से कम होता है। अतः हवाएँ स्थल भाग से समुद्र की ओर चलने लगती हैं और वर्षा कम करती हैं। इन हवाओं को मानसून हवाएँ कहते हैं।भारत की जलवायु मानसून हवाओं से अधिक प्रभावित होती है। इसलिए भारत की जलवायु को मानसूनी कहा जाता है। मानसून हवाएँ छः माह समुद्र से स्थल की ओर तथा छः माह स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं। इन हवाओं में ऋतुओं के अनुसार परिवर्तन होता है। दिए गए मानचित्र में लाल रंग के तीर से समुद्र से स्थल की ओर चलने वाली मानसून पवन को दर्शाया गया है। जिसे दक्षिणी-पश्चिमी मानसून या ग्रीष्म कालीन मानसून कहते हैं। इससे देश में 85 प्रतिशत वर्षा होती है। काले रंग के तीर से स्थल से समुद्र की ओेर चलने वाली मानसून पवन को दर्शाया गया हैं जिसे उत्तरी पूर्वी या शीत कालीन मानसून कहते हैं।
--------------------------------------------
-
6 /10
-
भारत: वनस्पति एवं वन्य-जीव
वनस्पति
वनस्पति का अर्थ है- पेड़-पौधों, झाड़ियों, घास, आदि का समूह, जो एक निश्चित क्षेत्र में पाए जाते हैं।
भारत की वनस्पति
भारत मंे जलवायु,जो वनस्पति मानव की सहायता के बिना उगती और बढ़ती है, प्राकृतिक वनस्पति कहलाती है।
मिट्टी और तापमान की विविधता के कारण अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरह की वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। हम भारत की वनस्पति को मुख्य पाँच प्रकारों में बाँटते हैं:
1.उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वन
2.उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वन
3.उष्ण कटिबन्धीय मरुस्थलीय झाड़ियाँ
4.पर्वतीय वन
5.ज्वारीय या दलदली वन
उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वन
ये वन अधिक वर्षा (200 सेमी से अधिक) वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। ये मुख्यतः पश्चिमी घाट तथा देश के उत्तर-पूर्वी भागों में मिलते हैं। ये वन इतने घने और ऊँचे होते हैं कि इनमें सूर्य का प्रकाश जमीन तक नहीं पहुँच पाता है। इन वनों के वृक्ष, वर्षा के अलग-अलग समय में अपनी पत्तियाँ गिराते हैं, जिससे ये वन हमेशा हरे-भरे दिखाई देते हैं। इसलिए इन्हें ‘सदाबहार वन’ भी कहते हैं। इस के मुख्य वृक्ष महोगनी, एबोनी, रबड़, रोजवुड आदि हैं।
उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वन
ये वन सामान्य वर्षा (100 से 200 सेमी के बीच) वाले क्षेत्रों मंे पाए जाते हैं। ये वन हिमालय की शिवालिक श्रेणी से
-
लेकर पश्चिमी घाट की पूर्वी ढ़लानों तक फैले हैं। ये वन कम घने होते हैं और वर्ष के एक निश्चित समय (अधिकांशतः ग्रीष्म ऋतु) में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। इसलिए इन वनों को ‘मानसूनी वन’ भी कहते हैं। इन वनों में सागौन, साल आबनूस, पीपल, नीम, चन्दन, शीशम, शहतूत आदि के वृक्ष मुख्य रूप से मिलते हैं।
उष्ण कटिबन्धीय मरुस्थलीय वन
ये वन कम वर्षा (80 सेमी से कम) वाले क्षेत्रो में पाए जाते हैं। यह वनस्पति राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, तथा दक्षिण पठार के शुष्क भागों में मिलती है। पानी की कमी को दूर करने के लिए इन वनस्पतियों की पत्तियाँ कँटीली होती हैं। इन वनों के वृक्षों की ऊँचाई अधिक नहीं होती है। इनके मुख्य वृक्ष कीकर, खैर, बबूल, खजूर, कैक्टस आदि हैं।
पर्वतीय वन
ये वन पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन वनों को पर्वतों की ऊँचाई भी प्रभावित करती है। यहाँ उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वनों से लेकर उपोष्ण कटिबन्धीय सदाबहार शंक्वाकार पर्वतीय वन मिलते हैं। समुद्रतल से 1500 से 2500 मीटर की ऊँचाई के बीच पेड़ों का आकार शंक्वाकार होता है। ये शंकुध्ाारी वृक्ष कहे जाते हैं। यहाँ के मुख्य वृक्ष चीड़, चेस्टनट, ओक, देवदार तथा मैग्लोलिया हैं।
ज्वारीय या दलदली वन
इस प्रकारके वन डेल्टा प्रदेशों तथा समुद्र के ज्वार वाले भागों में होते हैं। ये वृक्ष खारे पानी में भी रह सकते हैं। इनका विस्तृत क्षेत्र गंगा नदी का डेल्टा है। ये मुख्यतः पश्चिम बंगाल, अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूहों में पाए जाते हैं। यहाँ विशेष रूप से ‘सुन्दरी’ के वृक्ष पाए जाते हैं, जिससे इन वनों को ‘सुन्दरवन’ कहा जाता है। इन्हें मैंग्रोव वन भी कहते हैं।
शिवालिक श्रेणी- यह लघु या मध्य हिमालय के दक्षिण भाग में कम ऊँचाई की पर्वत श्रेणी है। इसकी ऊँचाई 900 मीटर से 1200 मीटर तथा चैड़ाई 10 से 50 किमी है।
पश्चिम से पूरब तक हिमालय का विस्तार सिन्धु नदी से ब्रह्मपुत्र नदी तक है। पश्चिम में इसकी चैड़ाई अधिक और पूरब में इसकी चैड़ाई कम है।
हिमालय पर्वत से लाभ
हिमालय पर्वत भारत के उत्तर में पश्चिम से पूरब दिशा तक एक पहरेदार के रूप में स्थित है।
सयह पर्वत उत्तर की ओर से आने वाली ठण्डी हवाओं को रोकता है। यदि हिमालय पर्वत न होता तो हमारी जलवायु ठण्डी और शुष्क होती। साथ ही दक्षिणी पश्चिमी मानसून के समय आने वाली मानसूनी हवाओं को वापस भारत की ओर मोड़कर वर्षा कराने में सहायक है।
हिमालय पर्वत में अनेक जड़ी-बूटियाँ पाई जाती हैं जो विभिन्न रोगों के उपचार के लिए प्रयोग की जाती हैं।
हिमालय पर्वत के अन्तर्गत अनेक पर्यटन स्थल जैसे कश्मीर, शिमला, मसूरी, कुल्लू-मनाली आदि पाए जाते हैं।
2. दक्षिण का पठार
उत्तर के विशाल मैदान तथा तटीय भागों के बीच की विस्तृत उच्च भूमि को दक्षिण का पठार या प्रायद्वीपीय पठार कहते हैं। यह दो भागों में बँटा है-
दक्कन का पठार - यह पठार प्राचीन कठोर, रवेदार चट्टानों में मिलकर बना है। यह नर्मदा व ताप्ती नदी के दक्षिण में त्रिभुजाकार रूप में स्थित है। इसके पश्चिम में पश्चिमी घाट के पर्वत और पूरब में पूर्वी घाट के पर्वत स्थित हैं। ये पर्वत दक्षिण-पश्चिम मानसून को रोकते हैं, जिससे पश्चिमी तट पर अधिक वर्षा होती है और पूरब के भागों में कम वर्षा होती है। दक्कन के पठार में कपास का उत्पादन होता है। पश्चिमी घाट में थालघाट, भोरघाट और पालघाट के दर्रे हैं, जिनसे होकर पूर्वी भाग से पश्चिमी तट के लिए रेलमार्ग जाते हैं। महाराष्ट्र में ज्वालामुखी से निर्मित एक लावा का पठार है।
मालवा का पठार - यह पठार नर्मदा नदी तथा विन्ध्याचल पर्वत के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इसके उत्तर में बुन्देलखण्ड तथा बघेलखण्ड क्षेत्र स्थित हैं। नर्मदा और ताप्ती नदियाँ इस पठार से बहती हुई अरब सागर में गिरती हैं। यह भाग खनिजों का विशाल भण्डार है। प्रायद्वीपीय भारत के उत्तरी- पूर्वी भाग में छोटा नागपुर का पठार है, जो खनिज सम्पत्ति के लिए विख्यात है।
दक्षिण के पठार का महत्त्व
सइस पठार में सागौन, चन्दन तथा अन्य बहुमूल्य वृक्ष पाए जाते हैं।
सइस पठार की प्राचीनतम शैलों में भारत के अधिकांश खनिज पाए जाते हैं।
सजल विद्युत उत्पादन के केन्द्र भी दक्षिण के पठार में स्थित हैं।
आप किसी ऊँचे स्थान पर खड़े होकर चारों तरफ देखिए। चारों ओर का धरातल कैसा दिखाई दे रहा है ? आइए चर्चा करें।
3. मध्य का मैदान
हिमालय के दक्षिण में भारत का विशाल उत्तरी मैदान है। यह मैदान संसार का बहुत ही उपजाऊ मैदान है। यह गंगा, सतलज, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों की उपजाऊ मिट्टी से बना है। इसका ढाल पश्चिम से पूरब की ओर है। इस मैदान की लम्बाई पूरब से पश्चिम तक 3200 किमी तथा चैड़ाई 150 किमी से 300 किमी है। शिवालिक पहाड़ियों के दक्षिण में कंकरीला ऊबड़-खाबड़ भाबर क्षेत्र और नम मिट्टी वाला तराई क्षेत्र उत्तर-पश्चिम से पूरब तक फैला है।तराई क्षेत्र में घने जंगल पाए जाते हैं, जिनको साफ करके भूमि को खेती के प्रयोग में लाया जाता है। तराई क्षेत्र के दक्षिण में बहुत उपजाऊ और चैरस विशाल मैदान है। विभिन्न फसलों जैसे- मक्का, गेहूँ, चावल, जौ, गन्ना, बाजरा, कपास आदि की खेती इन मैदानों में की जाती है। विभिन्न उद्योगों हेतु कच्चा माल भी इस क्षेत्र से मिलता है। मानव जीवन के लिए सभी सुविधाएँ इस क्षेत्र में उपलब्ध हैं। ।
मरुस्थल - भारत के पश्चिम भाग में मरुस्थल स्थित है। उत्तर भारत के मैदान के दक्षिण-पश्चिम में अरावली पर्वत की पहाड़ियों से लेकर पाकिस्तान की सीमा तक रेतीला भाग है, इसे ‘थार का मरुस्थल’ या महा मरुस्थल कहते हैं। यह सूखा (शुष्क), गर्म और रेतीला है, इसी कारण यहाँ वनस्पति की मात्रा बहुत कम पाई जाती है। उच्चावच की दृष्टि से यह पठार का ही एक भाग है।
4. तटीय मैदान
पूर्वी तथा पश्चिमी घाटों तथा समुद्र के बीच तटीय मैदान हैं। पश्चिम तट का मैदान कम चैड़ा है तथा इसमें कोई बड़ी नदी नहीं है, जबकि पूर्वी तट का मैदान अधिक चैड़ा है और उसमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टा हैं। पूर्वी तटीय मैदान में चावल की उपज अच्छी होती है और पश्चिमी तटीय मैदान में मसाले नारियल, कहवा तथा रबड़ की खेती की जाती है।
- गंगा-यमुना का मैदान नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी से बना है।
- समुद्र तटीय मैदान समुद्र और नदियों के द्वारा कटाव से बना है।
- पहाड़ियों के बीच से जो रास्ते बनते हैं, उन्हें दर्रा कहते हैं।
- पर्वतों के बीच जहाँ खड़े ढाल वाले भाग होते है, उन्हें घाट कहते हैं। कहीं-कहीं घाट, दर्रो जैसे होते हंै, जिनसे होकर आने जाने के मार्ग बनते हैं।
- --------------------------------------------
- 6 /9
- भारत: जलवायु
- सामान्यतः भारत में प्रमुख ऋतुएँ होती हैं-दिसम्बर से फरवरी तक ठंडा मौसम (सर्दी)मार्च से मई तक गर्म मौसम (गर्मी)जून से सितम्बर तक दक्षिण-पश्चिम मानसून का मौसम (वर्षा)अक्टूबर और नवम्बर में मानसून के लौटने का मौसम (शरद)बसंत ऋतु वर्ष की सबसे सुहावनी ऋतु होती है। बसंत ऋतु आम तौर से फरवरी-मार्च (फागुन-चैत) माह में आती है। जब पेड़ों के पुराने पत्ते गिरते हैं और नए पत्ते निकलने लगते हैं।मानसूनी हवाएँकर्क रेखा हमारे देश को लगभग दो बराबर भागों में विभाजित करती है। इसके दक्षिण का भाग उष्ण कटिबन्ध (गर्म जलवायु क्षेत्र) के अन्तर्गत आता है जबकि उत्तरी भाग उपोष्ण कटिबन्ध (कुछ कम गर्म) के अन्तर्गत आता है। इसलिए ग्रीष्म ऋतु में अधिक ऊँचाई वाले स्थानों को छोड़कर पूरे देश में स्थलीय भाग पर तापमान काफी ऊँचा रहता है और अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी में कम रहता है। इस कारण हवाएँ समुद्र से स्थल की ओर चलती हैं, लेकिन शीत ऋतु में उत्तरी मैदानों में तापमान काफी कम हो जाता है और हिमालय की पेटी के बहुत से भागों में तापमान हिमांक बिन्दु (शून्य डिग्री) से कम होता है। अतः हवाएँ स्थल भाग से समुद्र की ओर चलने लगती हैं और वर्षा कम करती हैं। इन हवाओं को मानसून हवाएँ कहते हैं।भारत की जलवायु मानसून हवाओं से अधिक प्रभावित होती है। इसलिए भारत की जलवायु को मानसूनी कहा जाता है। मानसून हवाएँ छः माह समुद्र से स्थल की ओर तथा छः माह स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं। इन हवाओं में ऋतुओं के अनुसार परिवर्तन होता है। दिए गए मानचित्र में लाल रंग के तीर से समुद्र से स्थल की ओर चलने वाली मानसून पवन को दर्शाया गया है। जिसे दक्षिणी-पश्चिमी मानसून या ग्रीष्म कालीन मानसून कहते हैं। इससे देश में 85 प्रतिशत वर्षा होती है। काले रंग के तीर से स्थल से समुद्र की ओेर चलने वाली मानसून पवन को दर्शाया गया हैं जिसे उत्तरी पूर्वी या शीत कालीन मानसून कहते हैं।--------------------------------------------
- 6 /10
- भारत: वनस्पति एवं वन्य-जीववनस्पतिवनस्पति का अर्थ है- पेड़-पौधों, झाड़ियों, घास, आदि का समूह, जो एक निश्चित क्षेत्र में पाए जाते हैं।भारत की वनस्पतिभारत मंे जलवायु,जो वनस्पति मानव की सहायता के बिना उगती और बढ़ती है, प्राकृतिक वनस्पति कहलाती है।मिट्टी और तापमान की विविधता के कारण अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरह की वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। हम भारत की वनस्पति को मुख्य पाँच प्रकारों में बाँटते हैं:1.उष्ण कटिबन्धीय वर्षा वन2.उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वन3.उष्ण कटिबन्धीय मरुस्थलीय झाड़ियाँ4.पर्वतीय वन5.ज्वारीय या दलदली वनउष्ण कटिबन्धीय वर्षा वनये वन अधिक वर्षा (200 सेमी से अधिक) वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। ये मुख्यतः पश्चिमी घाट तथा देश के उत्तर-पूर्वी भागों में मिलते हैं। ये वन इतने घने और ऊँचे होते हैं कि इनमें सूर्य का प्रकाश जमीन तक नहीं पहुँच पाता है। इन वनों के वृक्ष, वर्षा के अलग-अलग समय में अपनी पत्तियाँ गिराते हैं, जिससे ये वन हमेशा हरे-भरे दिखाई देते हैं। इसलिए इन्हें ‘सदाबहार वन’ भी कहते हैं। इस के मुख्य वृक्ष महोगनी, एबोनी, रबड़, रोजवुड आदि हैं।उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वनये वन सामान्य वर्षा (100 से 200 सेमी के बीच) वाले क्षेत्रों मंे पाए जाते हैं। ये वन हिमालय की शिवालिक श्रेणी से
- लेकर पश्चिमी घाट की पूर्वी ढ़लानों तक फैले हैं। ये वन कम घने होते हैं और वर्ष के एक निश्चित समय (अधिकांशतः ग्रीष्म ऋतु) में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। इसलिए इन वनों को ‘मानसूनी वन’ भी कहते हैं। इन वनों में सागौन, साल आबनूस, पीपल, नीम, चन्दन, शीशम, शहतूत आदि के वृक्ष मुख्य रूप से मिलते हैं।उष्ण कटिबन्धीय मरुस्थलीय वनये वन कम वर्षा (80 सेमी से कम) वाले क्षेत्रो में पाए जाते हैं। यह वनस्पति राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, तथा दक्षिण पठार के शुष्क भागों में मिलती है। पानी की कमी को दूर करने के लिए इन वनस्पतियों की पत्तियाँ कँटीली होती हैं। इन वनों के वृक्षों की ऊँचाई अधिक नहीं होती है। इनके मुख्य वृक्ष कीकर, खैर, बबूल, खजूर, कैक्टस आदि हैं।पर्वतीय वनये वन पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन वनों को पर्वतों की ऊँचाई भी प्रभावित करती है। यहाँ उष्ण कटिबन्धीय पतझड़ वनों से लेकर उपोष्ण कटिबन्धीय सदाबहार शंक्वाकार पर्वतीय वन मिलते हैं। समुद्रतल से 1500 से 2500 मीटर की ऊँचाई के बीच पेड़ों का आकार शंक्वाकार होता है। ये शंकुध्ाारी वृक्ष कहे जाते हैं। यहाँ के मुख्य वृक्ष चीड़, चेस्टनट, ओक, देवदार तथा मैग्लोलिया हैं।ज्वारीय या दलदली वनइस प्रकारके वन डेल्टा प्रदेशों तथा समुद्र के ज्वार वाले भागों में होते हैं। ये वृक्ष खारे पानी में भी रह सकते हैं। इनका विस्तृत क्षेत्र गंगा नदी का डेल्टा है। ये मुख्यतः पश्चिम बंगाल, अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूहों में पाए जाते हैं। यहाँ विशेष रूप से ‘सुन्दरी’ के वृक्ष पाए जाते हैं, जिससे इन वनों को ‘सुन्दरवन’ कहा जाता है। इन्हें मैंग्रोव वन भी कहते हैं।
Comments